अब थोड़ा हारना भी सीख जाओ साथियों
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बचपन की मासूमियत मेडिकल एंट्रेंस की भेंट चढ़ गई,
जवानी की इच्छाएं कॉलेज में सबस्टेज सेमेस्टर,पी यू सी ,यूनिवर्सिटी ,वाइवा देते देते ढेर हो गई
तीस के पार हुए तो करियर और कमाई की फिक्र तेज़ हो गई
और
चालीस के हुए तो हॉस्पिटल, मरीज़ के स्ट्रेस से मुठभेड़ हो गई।
मरीजों की सेहत सुधारते सुधारते
पता ही न चला
खुद की सेहत कब जवाब दे गई।
ज़िंदगी के हर पड़ाव पर
सोचते रहे ,कि अगला पड़ाव
इससे बेहतर होगा,
तब खूब हसेंगे
और खुद के लिए जीयेंगे,
पर,
वो खूबसूरत पड़ाव कभी न आया।
आंखे जब खुली तो जिंदगी की शाम हो चली।
अब भी संभल जाओ साथियों,
ज़िंदगी की इस दौड़ में
पिछड़ना सीख जाओ साथियों।
बचपन से आज तक हरदम जीतते ही आये हो,
खुद पर रहम खाओ,
अब थोड़ा हारना भी सीख जाओ साथियों।
-डॉ राज शेखर यादव
फिजिशियन एवं ब्लॉगर
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